Guru Granth Sahib Translation Project

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ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੩ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ३ ॥
ਅਮਲੁ ਕਰਿ ਧਰਤੀ ਬੀਜੁ ਸਬਦੋ ਕਰਿ ਸਚ ਕੀ ਆਬ ਨਿਤ ਦੇਹਿ ਪਾਣੀ ॥ अमलु करि धरती बीजु सबदो करि सच की आब नित देहि पाणी ॥ गुरु जी कथन करते हैं कि हे जीव ! शुभ कर्मों को भूमि बना कर उसमें गुरु-उपदेश रूपी बीज का रोपण करो और सत्य-नाम रूपी जल से इसकी सिंचाई करो।
ਹੋਇ ਕਿਰਸਾਣੁ ਈਮਾਨੁ ਜੰਮਾਇ ਲੈ ਭਿਸਤੁ ਦੋਜਕੁ ਮੂੜੇ ਏਵ ਜਾਣੀ ॥੧॥ होइ किरसाणु ईमानु जमाइ लै भिसतु दोजकु मूड़े एव जाणी ॥१॥ इस प्रकार तुम कृषक बन कर धार्मिक-निष्ठा को उत्पन्न करो, इससे तुझे स्वर्ग-नरक का ज्ञान प्राप्त होगा ॥ १ ॥
ਮਤੁ ਜਾਣ ਸਹਿ ਗਲੀ ਪਾਇਆ ॥ मतु जाण सहि गली पाइआ ॥ यह मत समझ लेना कि ज्ञान केवल बातों से ही प्राप्त हो जाता है।
ਮਾਲ ਕੈ ਮਾਣੈ ਰੂਪ ਕੀ ਸੋਭਾ ਇਤੁ ਬਿਧੀ ਜਨਮੁ ਗਵਾਇਆ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ माल कै माणै रूप की सोभा इतु बिधी जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ धन-सम्पति के अभिमान तथा रूप की शोभा में तुम ने अपना जन्म निष्फल ही गंवा लिया है॥ १॥ रहाउ ॥
ਐਬ ਤਨਿ ਚਿਕੜੋ ਇਹੁ ਮਨੁ ਮੀਡਕੋ ਕਮਲ ਕੀ ਸਾਰ ਨਹੀ ਮੂਲਿ ਪਾਈ ॥ ऐब तनि चिकड़ो इहु मनु मीडको कमल की सार नही मूलि पाई ॥ मानव शरीर में अवगुण कीचड़ की भाँति हैं तथा मन मेंढक समान, ऐसे में निकट ही विकसित हुए कमल की उसे कोई सूझ नहीं है। अर्थात्-अवगुणों के कीचड़ में फँसे मानव मन रूपी मेंढक ने परमात्मा रूपी कमल की पहचान कदाचित नहीं की है।
ਭਉਰੁ ਉਸਤਾਦੁ ਨਿਤ ਭਾਖਿਆ ਬੋਲੇ ਕਿਉ ਬੂਝੈ ਜਾ ਨਹ ਬੁਝਾਈ ॥੨॥ भउरु उसतादु नित भाखिआ बोले किउ बूझै जा नह बुझाई ॥२॥ गुरु रूपी भंवरा नित्य प्रति आकर अपनी भाषा बोलता है, अर्थात-उपदेश देता है, लेकिन मेंढक रूपी मानव मन इसे कैसे समझ सकता है, जब तक प्रभु स्वयं इस मन को समझा न दे॥ २॥
ਆਖਣੁ ਸੁਨਣਾ ਪਉਣ ਕੀ ਬਾਣੀ ਇਹੁ ਮਨੁ ਰਤਾ ਮਾਇਆ ॥ आखणु सुनणा पउण की बाणी इहु मनु रता माइआ ॥ जिनका मन माया में रंजित है, उनको उपदेश देना अथवा उनके द्वारा उपदेश अवण करना (पवन की वाणी ) व्यर्थ की बात है। क्योंकि हमारा मन सांसारिक इच्छाओं से विचलित होता है, सभी संत शिक्षाओं का हमारे मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है (जैसे हवा की आवाज गुजरती है)
ਖਸਮ ਕੀ ਨਦਰਿ ਦਿਲਹਿ ਪਸਿੰਦੇ ਜਿਨੀ ਕਰਿ ਏਕੁ ਧਿਆਇਆ ॥੩॥ खसम की नदरि दिलहि पसिंदे जिनी करि एकु धिआइआ ॥३॥ स्वामी की कृपा-दृष्टि में तथा हृदय में प्रिय वही जीव हैं, जिन्होंने एक परमेश्वर को स्मरण किया है॥ ३॥
ਤੀਹ ਕਰਿ ਰਖੇ ਪੰਜ ਕਰਿ ਸਾਥੀ ਨਾਉ ਸੈਤਾਨੁ ਮਤੁ ਕਟਿ ਜਾਈ ॥ तीह करि रखे पंज करि साथी नाउ सैतानु मतु कटि जाई ॥ हे काज़ी ! सुनो, तुम तीस रोज़े रखते हो, तथा पाँच समय की नमाज़ तुम्हारी साथी है, किन्तु देखना, कहीं ऐसा न हो (काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार में से कोई) शैतान इन को नष्ट न कर दे।
ਨਾਨਕੁ ਆਖੈ ਰਾਹਿ ਪੈ ਚਲਣਾ ਮਾਲੁ ਧਨੁ ਕਿਤ ਕੂ ਸੰਜਿਆਹੀ ੪॥੨੭॥ नानकु आखै राहि पै चलणा मालु धनु कित कू संजिआही ॥४॥२७॥ गुरु जी कहते हैं कि हे काज़ी ! एक दिन तुम ने भी मृत्यु-मार्ग पर चलना है, फिर यह धन-सम्पति तुम किस के लिए संग्रहित कर रहे हो ॥ ४॥ २७ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੪ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥
ਸੋਈ ਮਉਲਾ ਜਿਨਿ ਜਗੁ ਮਉਲਿਆ ਹਰਿਆ ਕੀਆ ਸੰਸਾਰੋ ॥ सोई मउला जिनि जगु मउलिआ हरिआ कीआ संसारो ॥ वही परमात्मा है, जिसने इस जगत् को प्रफुल्लित किया है तथा संसार को हरा-भरा किया है।
ਆਬ ਖਾਕੁ ਜਿਨਿ ਬੰਧਿ ਰਹਾਈ ਧੰਨੁ ਸਿਰਜਣਹਾਰੋ ॥੧॥ आब खाकु जिनि बंधि रहाई धंनु सिरजणहारो ॥१॥ जिस परमात्मा ने पानी व पृथ्वी आदि पाँच तत्वों से सम्पूर्ण सृष्टि को बांध रखा है, वह सृजनहार परमात्मा धन्य है॥ १॥
ਮਰਣਾ ਮੁਲਾ ਮਰਣਾ ॥ मरणा मुला मरणा ॥ हे मुल्लां ! मृत्यु अपरिहार्य है।
ਭੀ ਕਰਤਾਰਹੁ ਡਰਣਾ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ भी करतारहु डरणा ॥१॥ रहाउ ॥ परमात्मा से डरना चाहिए॥ १॥ रहाउ॥
ਤਾ ਤੂ ਮੁਲਾ ਤਾ ਤੂ ਕਾਜੀ ਜਾਣਹਿ ਨਾਮੁ ਖੁਦਾਈ ॥ ता तू मुला ता तू काजी जाणहि नामु खुदाई ॥ तभी तुम श्रेष्ठ मुल्लां हो सकते हो, तभी तुम श्रेष्ठ काज़ी हो सकते हो, यदि तुम परमात्मा के नाम के बारे में जानते हो।
ਜੇ ਬਹੁਤੇਰਾ ਪੜਿਆ ਹੋਵਹਿ ਕੋ ਰਹੈ ਨ ਭਰੀਐ ਪਾਈ ॥੨॥ जे बहुतेरा पड़िआ होवहि को रहै न भरीऐ पाई ॥२॥ यदि तुम बहुत विद्वान हो तो भी तुम मृत्यु से बच कर नहीं रह सकते अर्थात् पनधड़ी की भाँति भर जाने पर डूब जाओगे॥ २॥
ਸੋਈ ਕਾਜੀ ਜਿਨਿ ਆਪੁ ਤਜਿਆ ਇਕੁ ਨਾਮੁ ਕੀਆ ਆਧਾਰੋ ॥ सोई काजी जिनि आपु तजिआ इकु नामु कीआ आधारो ॥ असली काज़ी तो वही है, जिस ने अहंत्व का त्याग किया है और एक प्रभु के नाम का आश्रय लिया है।
ਹੈ ਭੀ ਹੋਸੀ ਜਾਇ ਨ ਜਾਸੀ ਸਚਾ ਸਿਰਜਣਹਾਰੋ ॥੩॥ है भी होसी जाइ न जासी सचा सिरजणहारो ॥३॥ सत्य सृष्टि का सृजनहार आज भी है, भविष्य में भी होगा, उसकी यह रचना तो नष्ट हो जाएगी, किन्तु वह नष्ट नहीं होगा ॥ २॥
ਪੰਜ ਵਖਤ ਨਿਵਾਜ ਗੁਜਾਰਹਿ ਪੜਹਿ ਕਤੇਬ ਕੁਰਾਣਾ ॥ पंज वखत निवाज गुजारहि पड़हि कतेब कुराणा ॥ चाहे तुम पांचों समय की नमाज़ पढ़ते हो, चाहे कुरान शरीफ़ आदि धार्मिक ग्रंथ भी पढ़ते हो।
ਨਾਨਕੁ ਆਖੈ ਗੋਰ ਸਦੇਈ ਰਹਿਓ ਪੀਣਾ ਖਾਣਾ ॥੪॥੨੮॥ नानकु आखै गोर सदेई रहिओ पीणा खाणा ॥४॥२८॥ नानक देव जी कहते हैं कि हे काज़ी ! जब तुम्हें मृत्यु कब्र की ओर बुलाएगी तो तुम्हारा खाना-पीना ही समाप्त हो जाएगा।॥४॥२८॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੪ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥
ਏਕੁ ਸੁਆਨੁ ਦੁਇ ਸੁਆਨੀ ਨਾਲਿ ॥ एकु सुआनु दुइ सुआनी नालि ॥ गुरु जी कहते हैं कि जीव के साथ लोभ रुपी कुत्ता है तथा आशा व तृष्णा रूपी दो कुत्तियां हैं।
ਭਲਕੇ ਭਉਕਹਿ ਸਦਾ ਬਇਆਲਿ ॥ भलके भउकहि सदा बइआलि ॥ सदैव प्रातः होते ही ये आहार हेतु भौंकने लग जाते हैं।
ਕੂੜੁ ਛੁਰਾ ਮੁਠਾ ਮੁਰਦਾਰੁ ॥ कूड़ु छुरा मुठा मुरदारु ॥ जीव के पास झूठ रूपी छुरा है, जिससे वह सांसारिक प्राणियों को ठग कर खाता है। अर्थात् जीव झूठ के आसरे अभक्ष्य पदार्थ सेवन करता है।
ਧਾਣਕ ਰੂਪਿ ਰਹਾ ਕਰਤਾਰ ॥੧॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥१॥ हे प्रभु ! सांसारिक जीव हत्यारे के रूप में रह रहा है॥ १॥
ਮੈ ਪਤਿ ਕੀ ਪੰਦਿ ਨ ਕਰਣੀ ਕੀ ਕਾਰ ॥ मै पति की पंदि न करणी की कार ॥ जीव के लिए गुरु जी स्वयं को पुरुष मान कर कहते हैं कि मैंने उस प्रभु-पति की प्रतिष्ठित शिक्षा ग्रहण नहीं की तथा न ही कोई श्रेष्ठ कार्य किया है।
ਹਉ ਬਿਗੜੈ ਰੂਪਿ ਰਹਾ ਬਿਕਰਾਲ ॥ हउ बिगड़ै रूपि रहा बिकराल ॥ मैं ऐसे विकृत विकराल रूप में रह रहा हूँ।
ਤੇਰਾ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਤਾਰੇ ਸੰਸਾਰੁ ॥ तेरा एकु नामु तारे संसारु ॥ हे प्रभु ! आपका एक नाम ही भवसागर पार करने वाला है!
ਮੈ ਏਹਾ ਆਸ ਏਹੋ ਆਧਾਰੁ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥ मै एहा आस एहो आधारु ॥१॥ रहाउ ॥ मुझे इसी नाम की आशा है और इसी नाम का आश्रय है॥ १॥ रहाउ॥
ਮੁਖਿ ਨਿੰਦਾ ਆਖਾ ਦਿਨੁ ਰਾਤਿ ॥ मुखि निंदा आखा दिनु राति ॥ मैं अपने मुंह से दिन-रात निन्दा करता रहता हूँ।
ਪਰ ਘਰੁ ਜੋਹੀ ਨੀਚ ਸਨਾਤਿ ॥ पर घरु जोही नीच सनाति ॥ मैं निम्न वर्ग वाला चोरी करने हेतु पराए घरों की ओर देखता रहता हूँ।
ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਤਨਿ ਵਸਹਿ ਚੰਡਾਲ ॥ कामु क्रोधु तनि वसहि चंडाल ॥ इस देह में काम-क्रोधादि चाण्डाल बसते हैं।
ਧਾਣਕ ਰੂਪਿ ਰਹਾ ਕਰਤਾਰ ॥੨॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥२॥ हे प्रभु ! मैं हत्यारे के रूप में रह रहा हूँ॥ २॥
ਫਾਹੀ ਸੁਰਤਿ ਮਲੂਕੀ ਵੇਸੁ ॥ फाही सुरति मलूकी वेसु ॥ मेरा ध्यान लोगों को फँसाने में लगा रहता है, यद्यपि मेरा बाह्य भेष फ़कीर वाला है।
ਹਉ ਠਗਵਾੜਾ ਠਗੀ ਦੇਸੁ ॥ हउ ठगवाड़ा ठगी देसु ॥ मैं बड़ा ठग हूँ तथा दुनिया को ठग रहा हूँ।
ਖਰਾ ਸਿਆਣਾ ਬਹੁਤਾ ਭਾਰੁ ॥ खरा सिआणा बहुता भारु ॥ मैं स्वयं को बहुत चतुर समझता हूँ, लेकिन मेरे ऊपर पापों का बहुत भार पड़ा हुआ है।
ਧਾਣਕ ਰੂਪਿ ਰਹਾ ਕਰਤਾਰ ॥੩॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥३॥ हे प्रभु ! मैं हत्यारे के रूप में रह रहा हूँ॥ ३॥
ਮੈ ਕੀਤਾ ਨ ਜਾਤਾ ਹਰਾਮਖੋਰੁ ॥ मै कीता न जाता हरामखोरु ॥ मैंने प्रभु के किए उपकारों को भी नहीं जाना, अतः मैं कृतघ्न हूँ।
ਹਉ ਕਿਆ ਮੁਹੁ ਦੇਸਾ ਦੁਸਟੁ ਚੋਰੁ ॥ हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु ॥ अर्थात् मैं अपने कुकृत्यों से इतना शर्मिन्दा हूँ कि प्रभु के द्वार पर क्या मुँह लेकर जाऊँ।
ਨਾਨਕੁ ਨੀਚੁ ਕਹੈ ਬੀਚਾਰੁ ॥ नानकु नीचु कहै बीचारु ॥ गुरु नानक देव जी स्वयं को जीव रूप में संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैं इतना नीच हो गया हूँ।
ਧਾਣਕ ਰੂਪਿ ਰਹਾ ਕਰਤਾਰ ॥੪॥੨੯॥ धाणक रूपि रहा करतार ॥४॥२९॥ मैं हत्यारे के रूप में रह रहा हूँ। अर्थात्-इस स्वरूप में मेरी मुक्ति कैसे होगी ? ॥ ४॥ २९ ॥
ਸਿਰੀਰਾਗੁ ਮਹਲਾ ੧ ਘਰੁ ੪ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥ सिरीरागु महला १ घरु ४ ॥
ਏਕਾ ਸੁਰਤਿ ਜੇਤੇ ਹੈ ਜੀਅ ॥ एका सुरति जेते है जीअ ॥ इस दुनिया में जितने भी जीव हैं, उन सब में एक-सी सूझ है।
ਸੁਰਤਿ ਵਿਹੂਣਾ ਕੋਇ ਨ ਕੀਅ ॥ सुरति विहूणा कोइ न कीअ ॥ इस सूझ से वंचित कोई भी नहीं है


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